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"ध्यान क्या है"

4/11/2017

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"ध्यान क्या है"
आत्मा क्या है ये जानना आध्यात्म है और आत्मा की भाषा है ध्यान !
शून्यता से पूर्णता की यात्रा ही ध्यान है !
ध्यान चित्त की वो अवस्था है जिसमें व्यक्ति बाहरी संसार से अपना सम्बन्ध भुलाकर अपने भीतर छिपे उस व्यक्ति से जुड़ता है जो वास्तव में वो है, जो सत्य है। उन पलों में जिस आनंद और शांति को वो प्राप्त करता है उसे केवल अनुभव द्वारा ही जाना जा सकता है। शब्दों में उसका वर्णन संभव ही नहीं है परन्तु उसकी छवि व्यक्ति के चेहरे और उसके आचरण में प्रतिबिंबित होने लगती है !


नियमित रूप से ध्यान करने से व्यक्ति के मन में उठते हर प्रकार के द्वंद्व शांत हो जाते हैं और उसका मन एक ऐसी अवस्था को प्राप्त होता है जिसमें वह हर प्रकार के विचारों और बंधन से स्वयं को मुक्त पाता है। इस अवस्था में चित्त को गहन शान्ति और आनंद का अनुभव होता है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति अपने सामान्य जीवन में आने वाली परिस्थितियों का सामना अधिक जागरूकता और निपुणता से कर पाने में स्वयं को सक्षम पाता है और उसे स्वयं में सकारात्मक दृष्टिकोण, अधिक ऊर्जा और उत्साह की अनुभूति होने लगती है। 
ध्यान का उद्देश्य उस अवस्था को प्राप्त होना है जहाँ मन संयमित, शांत, विचारहीन और स्थिर हो। 
कबीर, बुद्ध जिन्होंने भी सत्य को, सौंदर्य को, परमात्मा को जाना उनकी सबसे बड़ी कठिनाई यही थी कि उसे कह पाना असंभव है। उसे कहा नहीं जा सकता बस महसूस किया जा सकता है। वो शब्द ही नहीं जो इस अनुभूति को परिभाषित कर सके। चित्त की इस अवस्था की प्राप्ति जहाँ बहुत सरल है वहीँ कई बार कठिन भी हो सकती है। कठिन इसलिए क्योंकि हमारा मन कभी हमारे वश में नहीं रहा है। इसके विपरीत विडंबना है कि अब तक हम ही सदा अपने मन के अधीन रहे हैं और उसकी इच्छानुसार कार्य करते या न करते आए हैं। परन्तु जिस क्षण हम अपने मन का स्वयं पर आधिपत्य अस्वीकार कर देंगे उसी क्षण हम अपने मन के स्वामी हो जाएंगे और हमारा मन हमारे अधीन यानि मन के आईने से धूल हटी नहीं कि धर्म उपलब्ध हो जाता है। इस अवस्था तक पहुँचने में किसको कितना समय लगता है यह व्यक्ति के अपने आत्मविश्वास और संकल्प शक्ति पर निर्भर करता है। 
ध्यान वो क्रिया है जिसमें कोई क्रिया नहीं है अर्थात् उस अवस्था में पहुंचना जिसमें कुछ न हो रहा हो। 


ध्यान के 120 प्रकार हैं जिनमें से स्वामी दीपांकर जी वो प्रकार सिखाते हैं जो समझने, सीखने और अपनाने में अत्यंत सरल और सुगम हैं। ध्यान के लिए सबसे आवश्यक है एक शांत वातावरण का चुनाव करके अपने अनुसार एक आरामदेह मुद्रा में अपनी पीठ को सीधा रखते हुए बैठना। अब अपने स्वांस पर ध्यान केन्द्रित कर उसे भीतर और बाहर आते गौर से देखें। मन में विचार आएं तो उन्हें आने दें उन्हें रोकने या उनसे किसी प्रकार का संघर्ष न करें केवल साक्षी बनकर उन्हें देखें, कुछ ही समय में आप पाएंगे कि धीरे धीरे विचारों का आना शांत हो जाएगा और अंततः विचारहीन अवस्था प्राप्त हो जाएगी। इसके साथ ही मन शांत और स्थिर होने लगेगा और आप अपने ह्रदय की धड़कन को सुन पाएंगे जो ध्यान की अवस्था कहलाती है। 
ध्यान के 120 प्रकार हैं जिनमें से स्वामी दीपांकर जी वो प्रकार सिखाते हैं जो समझने, सीखने और अपनाने में अत्यंत सरल और सुगम हैं। 


"मैं न तो मन हूँ, न बुद्धि, न अहंकार, न ही चित्त हूँ
मैं न तो कान हूँ, न जिह्वा, न नासिका, न ही नेत्र हूँ
मैं न तो आकाश हूँ, न धरती, न अग्नि, न ही वायु हूँ
मैं तो मात्र शुद्ध चेतना हूँ, अनादि हूँ, अनंत हूँ, अमर हूँ" 
और इससे मनुष्य को अवगत कराता है ध्यान, वो कला जो एकमात्र मनुष्यों के लिए ही है। जब व्यक्ति के मन, शरीर और आत्मा तीनों में सामंजस्य होता है तब व्यक्ति कुछ भी प्राप्त करने में सक्षम हो जाता है। 
औषधि केवल शरीर तक ही सीमित है और शरीर में व्याप्त व्याधि के लक्षण को देखकर उसका उपचार करने में सक्षम है। परन्तु ध्यान व्यक्ति से जुड़े हर पहलू को दृष्टिकोण में रखकर उसके शरीर, मन और आत्मा तीनों का उपचार करता है और तब व्यक्ति वह भी पा लेता है जिसका उसने कभी अनुमान भी न लगाया हो। 
ध्यान के माध्यम से आज और अभी समय है अपने जीवन को परिवर्तित करने का। ये वक्त प्रकाश के विचार का नहीं आँख की साधना का हैं या यूँ कहूँ कि स्वयं की साधना का है जिससे आत्मिक अनुभूतियां उपलब्ध होती हैं और ध्यान की इस प्रक्रिया को एक सरल और सुलभ रूप में प्रस्तुत किया है स्वामी दीपांकर जी ने, जिसे हर कोई बहुत ही आसानी से सीख और समझकर अपने जीवन को रूपांतरित करने में सक्षम हो सकता है | इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए दीपांकर जी ने अपनी अगवाई में "Dipankar Dhyaan Foundation" 
नाम की सामाजिक संस्था की स्थापना की जिसका ध्येय है औषधियों के दुष्प्रभाव से लोगों को जागरूक करना और उन्हें ध्यान और ध्यान के लाभ से अवगत कराना और अधिक से अधिक लोगों को ध्यान के लिए प्रेरित करना। ​
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