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भिक्षा यात्रा

आज देवबंद की धरती से बड़ा संदेश है, समूचे सनातनी हिंदुओं के लिए, ध्यान से सुनो गर्व होगा। एक थे एक हैं और रहेंगे.. हिंदू मतलब…यह भिक्षा यात्रा की ताक़त दिन 193
365 दिवसीय भिक्षा यात्रा
भिक्षा हर सन्यासी का अधिकार
पहले राष्ट्र नो कास्ट
किसी व्यक्ति विशेष के लिए नहीं अपितु पूरे हिंदू समाज के लिए है ये विशेष भिक्षा यात्रा
जातियों में विभाजित सनातनी हिन्दू हों एक
नशा मुक्त हो युवा समाज
जातियों में विभाजित होना अब बंद
हिन्दू मतलब हिन्दू बात ख़त्म
आज कल के परिवेश में हर व्यक्ति किसी न किसी परेशानी से घिरा होता है। वह परेशानी कोई भी हो सकती है चाहे पारिवारिक या सामाजिक। परिवार से ही समाज का निर्माण होता है। ऐसे में सवाल उठता है कि इस से मुक्ति कौन दिलाएगा। तभी हमें दिखाई देता है  चेहरे पर मुस्कान, शरीर पर गेरुआ वस्त्र और मन में बस एक ही प्रण लिए एक तेजयुक्त चेहरा। गलियों, शहरों और कई प्रान्तों में भिक्षाम देहि की पुकार लगाते हुए। परन्तु ये भिक्षा की पुकार इस सन्यासी ने स्वयं की क्षुधा शांति के लिए नहीं की अपितु समाज के प्रति एक कर्तव्य निभाने के लिए की है। एक ऐसा कर्तव्य जो सम्पूर्ण देश को एक राष्ट्र बनाएगा। इस सन्यासी का हठ ही तो है कि वो समाज में जातियों में विभाजित सनातनी हिन्दू को एक करना चाहता है। यह युवा सन्यासी बस यही चाहता है कि इस देश के युवा नशे से दूर हों । इस सन्यासी ने अपने इस प्रण को एक ही नाम दिया है भिक्षा यात्रा। और इस यात्रा का उद्देश्य है-पहले राष्ट्र नो कास्ट।
हम बात कर रहे हैं अंतर्राष्ट्रीय ध्यानगुरू स्वामी दीपांकर जी महाराज की। जिन्होंने कम आयु में ही ध्यान के माध्यम से अपना परचम भारतवर्ष में ही नहीं अपितु विदेशों में भी फैला लिया। स्वामी दीपांकर जिनका जन्म मुजफ्फरनगर में १० दिसंबर १९७६ में हुआ था। एक धर्मपरायण परिवार में जन्मे स्वामीजी ने अपने गुरु श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी के मार्गदर्शन में अपनी आध्यात्मिक खोज को आगे बढ़ाने के लिए 8 साल की छोटी उम्र में अपने घर की सुख-सुविधाओं को छोड़ दिया। उन्होंने अपने गुरुजी से आध्यात्म की जटिलता को सूक्ष्म रूप से जाना।  गुरु श्री ब्रह्मानंद सरस्वती जी ने  उनकी छिपी हुई क्षमताओं को देखते हुए उन्हें अपने संरक्षण में ले लिया। वर्षों की कड़ी मेहनत और कठोर अभ्यासों ने उस नन्हें मासूम बच्चे को आध्यात्मिक रूप से प्रबुद्ध आत्मा में बदल दिया। अपनी आध्यात्मिक खोज को जारी रखने के लिए, स्वामी दीपांकर सबसे पहले कोलकाता के काली घाट मंदिर गए, जिसके बाद वे पश्चिम बंगाल के कामाख्या मंदिर पहुंचे, जहाँ उन्होंने सूर्य साधना को सफलतापूर्वक पूरा किया और अन्य कठोर आध्यात्मिक साधनाओं में वर्षों बिताए। तत्पश्चात वे अपने गुरुदेव के मार्गदर्शन में अपनी आध्यात्मिक यात्रा जारी रखने के लिए लौट आए और भारत और विदेशों में धर्म और ध्यान के प्रचार और विस्तार में सक्रिय रूप से शामिल रहें। धार्मिकता के प्रतीक और नैतिक मूल्यों और आचरण के जीवंत उदाहरण, दीपांकर जी आज आध्यात्मिक दुनिया में बहुत सम्मान और सम्मान की वेदी पर पहुँचे हैं।
स्वामी दीपांकर न सिर्फ एक आध्यात्मिक गुरु, एक संरक्षक, एक परामर्शदाता और एक मार्गदर्शक के रूप में जाने जाते हैं बल्कि उनके पास एक सुनहरा दिल भी है और इसी चुंबकीय व्यक्तित्व और अच्छे दिला का प्रभाव है जो उन्होंने भिक्षा यात्रा जैसा एक संकल्प लिया और इस यात्रा को करते हुए उन्हें १०० दिन से भी ऊपर हो गए हैं।  इस भिक्षा यात्रा के माध्यम से स्वामी दीपंकर का उद्देश्य सरल भाषा में समाज को यह समझाना है कि हम हिन्दू हैं हम किसी भी जातियों में विभाजित होकर अपना अस्तित्व समाप्त क्यों कर रहे हैं।
पहले राष्ट्र और नो कास्ट का क्या है उद्देश्य
स्वामी दीपांकर जी के अनुसार हम आज जिस समाज में रह रहे हैं वहां हिन्दू कहीं दिखाई नहीं दे रहे वहां आपको क्षत्रिय, ब्राह्मण, वैश्य, शूद्र या ठाकुर पंडित, वर्मा, हरिजन आदि दिखाई देते हैं। प्राचीन समय की बात करें तो उस समय में कर्म के आधार पर जातियां बांटी जाती थी लेकिन आज ऐसा नहीं है। आज जन्म के आधार पर जातियां बांटी जा रही है। इन जातीय संघर्षों का ही नतीजा है कि इनमें न जाने कितने परिवार जल चुके हैं, न जाने कितने परिवार नष्ट हो चुके हैं। इस स्थिति में किसी को लाभ या हानि हो या न हो लेकिन समाज इस कारणवश पतन की ओर अवश्य अग्रसर हो रहा है। आचार्य दीपांकर की इस भिक्षा यात्रा के पीछे के प्रेरणास्रोत हैं स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी जिनकी उम्र थी १०९ वर्ष। इसके अलावा बाबा साहिब भीम राव अंबेडकर को देखें या डॉ. राममनोहर लोहिया जी को दोनों ही जातिवाद को समाप्त करने के लिए काफी प्रयास कर रहे थे। इतना ही नहीं यदि संत रविदास जी के बारे में बात करें तो उन्होंने तो स्वयं ही कहा है "जाति पाँति पूछे नहि कोई हरि को भजे सो हरि का होई।" तुलसी ,कबीर ,रैदास ,दादू ,सेन ,धन्ना जैसे संतों ने भक्ति के इस प्रकाश से जातीयता ,द्वेष संघर्ष के अंधकार को दूर किया। यह स्वामी दीपांकर के अथक प्रयासों का ही परिणाम है कि संत रविदास और अन्य संतों का यह विचार आज  सम्पूर्ण उत्तराखंड में, दिल्ली में यहाँ तक कि हरियाणा में भी जन जन का विचार बन रहा है।
स्वामी विवेकानंद कहते थे, 'मुझे गर्व है हिन्दू होने पर' तो हम भारतीय गर्व से क्यों न कहें हम हिन्दू है? इसके अलावा भगवद गीता में भी उल्लेख है कि वर्ण कर्म पर आधारित है तो हम इसे जन्म पर आधारित कैसे कर सकते हैं?  अपनी भिक्षा यात्रा में सबसे पहली भिक्षा स्वामी जी द्वारा यही मांगी गयी है कि गर्व से कहें हम हिन्दू हैं। क्या आपने कभी सोचा है ब्लड बैंक में इमरजेंसी में खून लेते समय कोई नहीं सोचता कि उसकी जाति क्या हैं, गंगा स्नान के दौरान भी कोई बगल में स्नान कर रहे व्यक्ति से जाति नहीं पूछता कि उसकी जाति क्या है। कभी आप किसी भारतीय से विदेश में मिलते हैं तो वहां तो आप उससे मिलकर सिर्फ इसीलिए खुश हो जाते हैं कि वो भारत से हैं उससे आप जाति नहीं पूछते। फिर भारत में या अपने देश में ही जाति का बंटवारा क्यों? अगर बांटना ही है तो खुशियां बांटें, धन बांटें जातियों में क्यों बाँट रहे हैं। तो स्वामी जी के इस पहली भिक्षा में आप सभी सहयोग करें। जातियों में विभाजित होना अब बंद हिन्दू मतलब हिन्दू बात ख़त्म।
भिक्षा यात्रा की दूसरी भिक्षा है नशा मुक्त हो युवा समाज
समाज का प्रत्येक जागरूक व्यक्ति चाहता है कि समाज नशा-मुक्त रहे। नशे के लती व्यक्ति भी नहीं चाहते हैं कि उनकी संतानें नशे की गिरफ्त में आयें। ऐसा होने के बाद भी, नशे के दुष्प्रभाव ज्ञात होने के बाद भी समाज में नशे के प्रति आसक्ति लगातार बढ़ती ही जा रही है। नशे के इस चंगुल में आज की युवा पीढ़ी इतनी फंस चुकी है कि इसमें घर के घर बर्बाद हो गए । आप कोई भी शादी-विवाह के समारोह, किसी भी हर्ष-उमंग का अवसर होना, युवाओं की अपनी मस्ती आदि अब बिना नशे के पूरी नहीं हो पाती है। शराब के जाम छलकना, बीयर के झागों का बनना-बिगड़ना, सिगरेट के धुंए के छल्लों का हवा में उड़ना, खुले आम सड़क पर जॉइंट बनाकर पीना अब आम बात लगती है। कहीं न कहीं समाज में इस नशे को स्वीकार्यता मिल चुकी है। ऐसे में हमारा फ़र्ज़ है की नशे से युवा समाज को दूर रखने का प्रयास करें। इसमें सरकार की मदद के साथ जरूरत है समाज के जागरूक लोगों को नशा मुक्ति के साथ-साथ जो युवा वर्ग भौतिकता की अंधी दौड़ में फंस गया है उसको समझाने की, संभालने की जरूरत है। यदि हम अपनी युवा पीढ़ी को सही-गलत का अर्थ समझा सके, सामाजिकता-पारिवारिकता का बोध करा सके, कर्तव्य-दायित्व को परिभाषित करा सके तो बहुत हद तक नशा-मुक्त समाज स्थापित करने में सफल हो जाएंगे। ऐसे में स्वामी दीपांकर की भिक्षा यात्रा की इस मुहीम से जुड़कर देश के युवाओं को नशा मुक्त बनाने का प्रयास करें। क्योंकि समाज इन्हीं युवाओं से बना है और यदि युवा जुझारू और सक्रिय होंगे तो समाज स्वयं ही उन्नति की राह पर चलेगा और फिर हमें समाज को पहले राष्ट्र नो कास्ट बनाने से कोई नहीं रोक सकता।
आप सभी से आग्रह है की ध्यान गुरु स्वामी दीपांकर की इस भिक्षा यात्रा में सहयोग करें और समाज को जाती प्रथा और नशे जैसे कुरूतियों से दूर करने का प्रयास करें।

Saharanpur,  Uttar Pradesh

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